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यदि आप आगे चलकर अपने बच्चों को अच्छी फिल्मों से करीब रखना चाहते हैं तो हमशक्लस देखने अकेले या पत्नी या महिला मित्र के साथ ही जाएं। गलती से भी अगर आप बच्चों को साथ ले गए तो ना सिर्फ उन्हें इस फिल्म पर अफसोस होगा बल्कि एक पिता व अभिभावक के तौर पर आपके इस फिल्म देखने के निर्णय व पसंद पर भी हमेशा के लिए उनमें एक शक पैदा हो जाएगा।
यदि एक लेखक के तौर पर मुझे टीम हमशक्लस के प्रमोशन पर पक्ष में लेख लिखने का पेड ऑफर भी दिया गया होता तो भी फिल्म देखने के बाद मैं वह कांट्रेक्ट सिर झुकाकर कैंसिल कर देता। मेरी गुजारिश है कि यह लेख इसके आगे वे पाठक बिल्कुल ना पढ़ेंए जो एक पक्ष पर लिखने वालों को लेखक नहीं मानते। बहुत कोशिशों के बाद भी जब मैंने अपनी सारी नैतिकता, ईमानदारी, चापलूसी, मौज-मस्ती खुद पर सवार कर लीए तब भी मेरी उंगलियों से इस फिल्म की सराहना नहीं हो सकी।
अब कुछ नए पहलू इसलिए टटोल रहा हूं क्योंकि सिर्फ एक आलोचक रहकर लेखन का अचार नहीं खिलाया जा सकता। सिनेमेटोग्राफी में हाथ आजमा रहे रवि यादव इस फिल्म के बाद ना सिर्फ पूछे जाएंगे व हो सकता है कि उन्हें आगे से साजिद खान की फिल्मों में अपनी काबिलियत ना गंवाने की सलाह मिले। रवि की कुशलता से फिल्म के शुरुआती दृश्य इसे आसमान की जितनी ऊंचाई पर ले जाते हैंए एक लापरवाह निर्देशन की वजह से अंत में उतनी ही धड़ाम से नीचे गिरा देते हैं।
मुझे नहीं पता कि साजिद खान ने ‘हे बेबी’ बनाते वक्त किस शख्स से सलाह-मशविरा-मार्गदर्शन लिया था पर शायद उस फिल्म की सफलता के बाद उन्होंने कुछ नया ना सीखने की जिद के चलते जो सीखा हुआ था,उसे भी बॉलीवुड की चमक-धमक में खो दिया। साजिद खान के विकीपीडिया में उनके नाम एक भी अवार्ड ना होना इस बात पर मुहर नहीं लगाता कि वे एक मेहनती व जिंदादिल इंसान नहीं हैंए बल्कि इस बात को मजबूती से कहता है कि एक निर्देशक के तौर पर उन्हें स्वयं एक निर्देशक की जरूरत है।
ऐसा निर्देशक जो उन्हें हमशक्लस बनाते वक्त बताए कि सैफ अली खान जैसे मंझे हुए एक्टर से बार.बार कॉमेडीए गंभीरताए मेलोड्रामा करवाते वक्त कहानी की रफ्तार पर पकड़ भी जरूरी है। ऐसा निर्देशक जो उन्हें सलाह दे कि अश्लीलता भारत की सड़कों पर बीस रुपए की सीडी भी परोस देती है। फिल्म में तमन्ना व ईशा गुप्ता का जिस्म दिखे जरूर पर कम से कम सही टाइमिंग पर।
एक किरदार जिसे साजिद ने सटीक चुनाए सटीक बुना वह है डॉक्टर खान, जिसकी भूमिका में लाजवाब ढंग से रमे हैं नबाव शाह। कई अभिनेताओं में अगर कला की कलई थिएटर में पसीना बहाकर मजबूत हुई हैए तो कई प्रतिभाओं में निखार टीवी सीरियलों के के अनुभव से आया है। इसलिए ही नबाव शाह फिल्म के शुरुआती नबाव हैं तो क्लाइमेक्स की नबावी का श्रेय भी उन्हीं को जाता है।
राम कपूर का किरदार कहानी की रौनक बन सकता था पर कुछ क्लाइमेक्स सीन को छोड़ दें तो वे भी निर्देशक की उंगली पकड़ कर ही आगे बढ़ते नज़र आते हैं। कई बार झलकता है कि सैफ और रितेश साजिद की लापरवाही समझकर बीच-बीच में अपनी समझदारी से फिल्म को संभालने की कोशिश करते हैं। खासकर तब दर्शकों को झटका लगता है जब उनकी आंखों की डोर और दिल के छोर के बीच कोई रास्ता नहीं निकलता और कपिल शर्मा से भी भद्दे मज़ाक पर फिल्म निर्भर हो लेती है।
निर्देशन के कांटे 250 रुपए पर भारी पड़ते हैं और कई हम जैसे दर्शक-लेखक इस तरह का नजरिया लिखने को मजबूर होते हैं और साजिद खान की अगली फिल्म को सिर्फ आशीर्वाद देने का निश्चय करते हैंए टिकट लेने-देने का नहीं। अब जिक्र सिर्फ तीन लोगों का बचा हैए जिसे करना इसलिए जरूरी है कि आपको लगे कि हांए यह फिल्म रिव्यू है।
मेरे लिए शायद ये जिक्र इसलिए है कि दरअसल यह मेरा फिल्म रिव्यू नहीं है। तो ये आखिर है क्याए ये तीन बचे हुए किरदारों के बाद खुद अंदाजा लगाइएगा। वशु भगनानी, बिपाशा बसु, हिमेश रेशमियां। वशु भगनानी ने निर्माता बनकर इस फिल्म के लिए विदेश में सैट, प्लेन, कॉस्टयूम व अन्य छिपे हुए खर्च किए। बिपाशा बसु ने अपने नए अवतार के लिए अपनी फीस में कुछ गुंजाइश व फिल्म में बेहतर करने की बेहद गुंजाइश छोड़ी है। संगीत प्रेमियों पर गायन का अहसान लादकर हिमेश ने साजिद खान की इस फिल्म से रोजगार पाया है।
मेहनत झलकती हैए पर बारीकी गायब है। कुछ अच्छा करने की हड़बड़ी झलकती है पर संयम गायब है। आशा है साजिद खान की अगली फिल्म की पहली ऑडिएंस खुद साजिद बनें और वे ना चाहते हुए भी अपने काम को एक बार एक आम दर्शक के तौर पर जरूर देखें। तब शायद हो सकता है कि मेरे जैसे लेखक जिन्हें बॉलीवुड का ‘ब’ भी ठीक से नहीं मालूम, कम से कम एक सकारात्मक फिल्म रिव्यू जरूर पेश कर सकेंगे। इस बार के लिए माफी…
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