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अगर मठ-श्रद्धालयों में इस तरह की कमाई को लेकर किसी संत ने चेतावनी दी है, तो हमें सिर्फ उतनी ही बात स्वीकार कर बाकी के कुतर्क निम्न सोच वालों के लिए छोड़ देने चाहिए….
आस्था सिर्फ तब से नहीं है, जब से आस्थाठ चैनल है। हां, यह हो सकता है कि मेरे अपने दिल में किसी विशेष ईश्वचर, संत, वैद्य के लिए कोई खास स्था न बन खड़ा हुआ हो। अगर किताबी और बेताबी ढंग से ना देखें तो मन्दरि, मस्जिद, चर्च की इमारतें आस्था और श्रद्धा ही तो हैं। बस इनमें हमारी भावनाओं ने मजबूती की कलई भर दी है और हमारे यकीन ने इन्हें सजा-संवार दिया है। ताजा मामला इतना वासी है कि इसे टटोलना थोड़ा सा जरूरी है। साईं बाबा, बाबा थे, या संत थे, या ईश्वजर थे या हिंदु-मुस्लिम तम एकता का प्रतीक थे या वगैरह-वगैरह थे….हम भी इसी बहस में पड़कर देखते हैं। शंकराचार्य की साध्य विचारधारा में ऐसा क्या. था जो लोगों, मीडिया व शिरडीवाले के लिए असाध्या हो गया। यह वाकई कोई मामला है या बनाया जा रहा है या बन चुका है या अब बनेगा। आइए आगे बढ़ते हैं।
शंकराचार्य के बयान को ध्याजन से सुनने, देखने पर उनकी आधी बात पर निगाह टिक जाती है। वे कह रहे हैं कि साईं बाबा के नाम पर देश में कमाई हो रही है। कमाई होना और कमाई गलत हाथों में जाना, दो अलग बातें हैं। यदि इस तरह के कमाऊ मामले हो रहे हैं, तब इस बात को अहमियत देनी होगी कि संत समाज की नज़र अपने समाज पर रहती है, ऐसे में यह देश के हित में है कि शंकराचार्य या उन जैसा कोई और या उनसे बिल्कुशल अलग कोई ऐसे सच सामने लाए। एक मामले पर नजर डालना यहां जरूरी है। अप्रैल 2013 में आरटीआई कार्यकर्ता संजय काले की ओर से आरोप लगा था कि शिर्डी मन्िरैलर में जो भी आभूषण चढ़ाए जाते हैं, उनके रखरखाव सम्बंडधी नियमों पर आंखें मूंद ली गईं। कहा गया कि जो खजाना गुरुवार-रविवार मन्दिर में मनाए जाने वाले उत्स वों के दौरान नीलाम होना चाहिए था, उसकी नीलामी नहीं की गई व सोने को गला कर रखा गया, जो कि नियमों के सख्ता खिलाफ था। हालांकि इस मामले की भनक राज्या सरकार तक पहुंची। शिरडी से लेकर तिरुपति तक के तीर्थस्थ लों में इस तरह की शिकायतें आम हैं। हमारे देश में धर्म का ध भी फूंक-फूंक कर लिखा जाता हे, ऐसे में कोई आम आदमी इस तरह के घपलों की खबरें सामने लाने में कई बार सोचता है। इसी सोच-विचार की आड़ में सिक्केख गिने जाते हैं और अंध श्रद्धा की आलीशान कोठियां खड़ी होती रहती हैं। जिन शंकराचार्य स्वअरूपानंद ने साईं पर सवाल उठाया है, वे मोदी के ‘हर-हर मोदी’ पर भी बोलने की हिम्मत दिखा चुके हैं। अपनी बात कहते हुए भले ही उन्हेां ने मीडिया और अटपटे शब्दों की फिराक में रहने वालों के लिए मुद्दा खड़ा किया हो, पर उन्हेां ने देश में आस्थार के नाम पर हो रही कमाई पर भी आंखें तरेरी हैं। हालांकि अगर आप लोग मेरी कलम को पक्षपात की स्याोही में डूबी हुई ना समझें तो कह सकता हूं कि साईं की ओर भक्त और भक्ति का झुकाव का कारण सरलता और सहजता है। वहीं शंकराचार्य जैसी मान्यतताओं को भक्तों के दर्शन तो मिल रहे हैं, पर चर्चित चढ़ौतियां नहीं। कहने में कड़वा लगता है पर शंकराचार्य का महत्वर व्यारवहारिक जिंदगी में एकदम उतना और वहीं तक है, जैसे कि आज के दौर में संस्कृचत भाषा का। जहां तक बात संपूर्णानंद की है, तो यह वही शख्स हैं, जिनकी राय अयोध्या। मसले के वक्तण बाकी शंकराचार्यों से अलग थी। राजनैतिक इतिहास व राजनैतिक दलों में इनका इतिहास खोजना जरूरी नहीं समझा। पूरे बयान और मामले में जो एक बात जरूरी है, वह है श्रद्धा के नाम पर हो रही कमाई और किसी व्यक्ति-वर्ग विशेष को उससे हो रहा लाभ। क्याक किसी भी धर्म, व्योवसाय या पेशे की जंजीरें तोड़कर हम उस सच्चेह इंसान की तरह नहीं सोच सकते कि कोई हमारी मेहनत से कमाई रकम का दुरुपयोग ना करे। अगर मठ-श्रद्धालयों में इस तरह की कमाई को लेकर किसी संत ने चेतावनी दी है, तो हमें सिर्फ उतनी ही बात स्वी कार कर बाकी के कुतर्क निम्नन सोच वालों के लिए छोड़ देने चाहिए। जहां तक बात साईं बाबा के ईश्विर होने या ना होने की है, तो इस बात पर तो कब की गांठ बंध चुकी है कि ईश्विर सिर्फ हमारी श्रद्धा और भरोसे का रूप है, जो हमारे अंदर है, समाने है, हममें है, सब में है।
जिन कबीर, तुलसी, ब्या,स और रविदास को संत-साधु का लिखित दर्जा मिला है, उन्हेंक हम अक्स र दसवीं-बारहवीं में जीवन परिचय की शक्लम में पढ़ लिया करते हैं। बेचारे साईं बाबा को तो किसी पाठ्यक्रम ने अनिवार्य भी नहीं किया। उनकी अनिवार्यता आधुनिक पूज्योनीय व सराहनीय देवता के तौर पर हुई, जो गुरुवार को अपने भक्तोंन के बीच खिचड़ी बांटता है व मानवता और क्रूरता की खिचड़ी नहीं बनने देता। तो जिसे सोने-चांदी के मुकुट चढ़ाओ या बारह रुपए किलो वाले केले, अगर हम साईं मन्दिर ना भी जाएं, तो भी मनोरंजन चैनलों के प्राइम टाइम सीरियल में हमसे मिलने चला आता है। साईं जो ठहरा…
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