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मछली जल की रानी है। कविता पढ-सुन कर आप, हम कितने निश्चिंत हो गए हैं ! इस रानी की खूबसूरत, मासूम और चमकीली चमड़ी बूंदों में इतनी मग्न रही कि उसके आंसू भी उन्हीं बूंदों में घुल-मिल कर बहते रहे। हमने इन्हें आधुनिकता के हवाले कर कांच के घर बना दिए। ’ऐक्वेरियम’ नाम देकर हम इस जल की रानी को घर की रानी बनाकर ले आए। आज प्रकृति के तमाम जल जीवों की तरह मछलियों की जि़न्दगियां प्यासी हैं। यह प्यास है, उनके संरक्षण की। उनके रख-रखाव की। उनकी देखभाल की। चहारदीवारियों के अंदर खूबसूरत मछलियों की सांसें या तो शो-पीस में उछल-कूद कर थम रही हैं, या वे एक वर्ग का स्वादिष्ट भोजन बनकर ’रानी’ के पद और ’जल’ के साम्राज्य को धीरे-धीरे अलविदा कह रही हैं। क्या किसी नैतिक-राजनैतिक-सामाजिक जि़म्मेदारियों में मछलियों के संरक्षण की फिक्र-जि़क्र है ?
शेाधकर्ताओं ने दावा किया है कि कैमिकल फर्टिलाइज़र, कीटनाशक के अंधाधुंध इस्तेमाल ने बीते एक दशक में मछलियों की 20 प्रजातियों को लगभग खत्म कर दिया है। रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि यदि यह सिलसिला यूं ही जारी रहा तो आने वाले कुछ सालों में हम मछलियों की 70 प्रतिशत स्थानीय नस्लों को खो देंगे। बांग्लादेश ऐग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी के जीव वैज्ञानिक मुस्तफा अली कहते हैं ’’ हर 143 में से 100 मछलियों की प्रजाति आज डेंजर जोन में हैं। अपनी सहूलियत, स्वाद और उत्पाद के लिए इंसानों की फौज इन मासूम बेज़ुबान जिन्दगियों की सौदेबाजी कर रही है। दरअसल इस बाज़ार का शिकार सिर्फ बड़ी मछलियां ही नही हैं, छोटी मछलियां भी धड़ल्ले से ऐक्वेरियम और नाॅन-वेज मेन्यु की भेंट चढ़ रही हैं।
राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पाई जाने वाली प्रजातियां जैसे घुटुम, कोडि़का, घोल, देवारी, टीला शोल आज उसी पानी में गहरे तक डूब गईं हैं, जहां कुछ साल पहले तक वे एक फलती-फूलती नस्ल के रूप में जानी जातीं थीं। ऐक्वाकल्चर विशेषज्ञ सैयद आरिफ भी फर्टिलाइज़र्स के अंधाधुंध इस्तेमाल को इस नुकसान के मुख्य कारणों में गिनाते हैं। दुनियाभर में फैला नाॅनवेज़ कल्चर भी मछलियों की घटती आबादी का बड़ा जि़म्मेदार है। स्वाद और सेहत के चक्रव्यूह में दिनभर में लाखों मछलियां फंसती जाती हैं। इनके जिस्म को तौल कर इंसानी जिस्म में पहुंचाया जाता है। खाने वालों का पेट भर जाता है और इस जीव का पेट कट जाता है।
आंकड़ों की जुगलबंदी कर इस लेख को भले ही और ज्यादा विश्वसनीय व रोचक बना दिया जाए, पर हकीकत यही है कि जल की ’रानी’ इस नई दुनिया में सौदेबाजी का शिकार हो रही है। वह बिक रही है। खाई जा रही है। सजाई जा रही है पर अफसोस, बचाई नहीं जा रही है। क्या पर्यावरण महकम़ा इनके संरक्षण को फिशरीज़, स्पर्म बैंक जैसी योजनाएं बना रहा है ? यदि कहीं किसी कोने में ये योजनाएं हैं भी तो क्या वे ठीक ढंग से लागू हो पा रही हैं ? भले ही संवेदनहीनता का यह एकतरफा बोझ सम्बंधित महकमों व सरकारी तंत्र पर डाल दिया जाए, पर कहीं ना कहीं हम-आप भी इस नुकसान में हिस्सेदार हैं। हममें से कई अच्छी-खासी कमाई वाले परिवार मछलियों को ऐक्वेरियम में सजाकर घर ले तो आते हैं, पर उनकी सही देखभाल व सुरक्षा के लिए वक्त नहीं निकाल पाते।
मछलियों की प्रजातियों को प्रकृति से जोड़े रखने के लिए हमें उनके साथ जुड़ना होगा। सम्बंधित महकमों को बड़ी-मंझोली व छोटी मछलियों के संरक्षण को गंभीरता से लेना होगा। व्यवसाय और व्यवस्था तभी तक फल-फूल सकती है, जब तक कि प्रकृति व उसके अंगों के साथ बेहतर ताल-मेल बना रहे। कविता की आखिरी पंक्ति भले ही यह कहती हो कि ’’हाथ लगाओगे तो डर जाएगी, बाहर निकालोगे तो मर जाएगी, पर यदि अब हमने इस जीव की जि़न्दगी बचाने को हाथ आगे नहीं बढ़ाए, तो जल की इस ’रानी’ को स्वाद-सेहत-सौदे के दुःशासन कुचल-मसल देंगे। फिर इनका जि़क्र जीव-विज्ञान की किताबों तक ही सिमट कर रह जाएगा। पाठ्यक्रम का कोई भी चैप्टर इन मछलियों को हमारी दुनिया में वापस नहीं लौटा पाएगा।
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