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सहानुभूति से ज्‍यादा सहयोग की दरकार

dhairya
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सिर्फ सहानुभूति से संकट टलने वाला नहीं है, ज़रूरत है मदद के लिए एकजुट होकर हाथ बढ़ाने की। चिकित्सकों ने इसे त्वचा कैंसर का सबसे भयावह चरण माना है। भारत भी यदि इन पीडि़तों के लिए आर्थिक मदद की पहल करे, तो इनकी जि़ंदगियों में खुशहाली आ सकती है।

कहते हैं दुःख के बाद सुख आना तय है, पर एक ऐसी भी दुनिया है, जहां दुःख घरज़माई बन बैठा है, और हालात भी इंसानियत पर बिना तरस खाये, जुल्म ढाये जा रहे हैं। ये लोग भले ही इस तरह जीने को अपनी आदत बना बैठे हांे, पर जो भी इन्हें इस हाल में देखता है, वो दंग रह जाता है, और कष्ट से कराहती इन रूहों को खुदा से ज़ल्द अच्छा करने की दुआ मांगने लगता है। मार्च 2007 में रोम के लोन टोडर ने अपनी इस बीमारी को कुछ तस्वीरों के ज़रिए उजागर किया था, जिसने चिकित्सा क्षेत्र के साथ-साथ समाज को भी झकझोर कर रख दिया था।
अमेरिकी चर्मरोग चिकित्सा के निदेशक स्टिफेन स्टोन ने इसे ’लेवनडाॅसकी’ नामक जानलेवा और बेहद कष्टदायी बीमारी का नाम दिया था। दक्षिण पूर्व एशियाई क्षेत्रों में यह चर्म रोग बेहद खतरनाक तरीके से अपनी जड़ें जमा चुका है। आधुनिक विज्ञान आज भी इसका जड़ से सफाया करने के नाम पर अंधेरे में हाथ-पैर मार रहा है। मीडिया में इस रोग के शिकार ’ट्री मैन’ कहे जाते हैं, इनकी त्वचा पर कई किलो मृत चर्बी जमा हो जाती है, जिसका एकमात्र कारण हार्मोंस का डिसबैलेंस बताया गया है।
इस रोग के कारणों पर हुए शोध से पता चलता है कि कोशिकाओं में जस्ते की मात्रा बढ़ने पर कुछ अजीब से दाग उभर आते हैं, यही दाग आगे चलकर बड़े और मोटे होते रहते हैं। शुरुआत से ही असहनीय दर्द शुरु होता है, जो समय के साथ-साथ कई गुना बढ़ता चला जाता है। कुछ आनुवांशिक लक्षणों से भी यह रोग पनपता है। चिकित्सकों ने इसे त्वचा कैंसर का सबसे भयावह चरण माना है। रोग बढ़ने के साथ-साथ मोटी फुंसियां, गले, हाथ, छाती तक पहुंचती रहतीं हैं, और जिस्म को न सिर्फ तकलीफदेय बना देतीं हैं, बल्कि इन्हें बेचारगी से देखने वाले की असहज़ प्रतिक्रिया, रोगी का आत्मविश्वास भी गिरा देती है।
इंडोनेशिया के 34 वर्षीय डेडे कोसवारा ने आज से कई साल पहले इंटरनेट पर अपना यह रोग बड़े आत्मविश्वास से दुनिया को दिखाया था। डिस्कवरी चैनल ने उनकी कहानी को प्रमुखता से प्रसारित भी किया था, और उनके इलाज की भी हरसंभव व्यवसथा की थी। हालांकि डेडे ने कभी किसी से इलाज़ की गुज़ारिश नहीं की , पर वे इस रोग से पीडि़त ऐसे शख्स थे, जो उसे सहज़ और अपने जीवन का अभिन्न हिस्सा मानकर जी रहे थे। लोग उन्हें देखकर भले ही हैरत में पड़ जाते हों, पर उन्होंने हमेशा ही खुशमिजाज़ी का परिचय दिया। 26 अगस्त 2008 को उनकी सर्जरी हुई, जिसमें तकरीबन 6 किलो, मृतचर्बी की पर्त हटाई गई, और उनकी स्थिति पहले से बेहतर हुई। डिस्कवरी चैनल के शो ’ट्रीमैनः सर्च फाॅर दा क्योर’ में दावा किया गया कि 95 फीसदी मृत चर्बी को उनके शरीर से अलग किया गया है, और वे मुश्किलों से पूरी तरह तो नहीं, पर कुछ हद तक ज़रूर बाहर आये हैं।
इलाज की गुत्थी सुलझाने में जापानी चिकित्सक भी बेजोड़ अध्ययन और शोध कर रहे हैं। पीडि़तों को साफ-सफाई से रखने और विकास की ओर ले जाने में वहां की सरकारें और तमाम गैरसरकारी संगठन सामने आये हैं। इन मरीज़ों की तरफ से जो मुख्य बातें सामने आई हैं, उनमें से एक, लोगों की सहानुभूति से ज्यादा, उन्हें सहयोग की ज़रूरत है। इनके बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, रहने को खुशनुमा माहौल, इनकी मूल ज़रूरतें हैं। हालांकि जकार्ता पोस्ट जैसे कई मीडिया घराने इनके सुख-दुख में हमेशा खड़े रहे हैं, इनकी बदौलत ही लोगों ने ऐसे रोग और उनसे पीडि़तों की व्यथा को जाना, समझा और महसूस किया है।
इंसानियत का सही अर्थ सिर्फ खुद की सुख-सुविधाओं पर ही नज़रें गढ़ाये रहना नहीं है। जब तक हम समाज के हर हिस्से में अपनापन और सहयोग के बीज नहीं बोएंगे, सफल और समृद्ध मज़हब की इमारत हमेशा कमज़ोर ही रहेगी। ऐसे गंभीर रोगों से निपटने में सिर्फ चिकित्सक वर्ग की ही नहीं, देश-विदेश के उन तमाम बुद्धिजीवियों की ज़रूरत है, जो इन पीडि़तों का दर्द बांट सकें, उनके हितों के लिए सवाल उठा सकें। भारत भी यदि उन पीडि़तों को आर्थिक मदद की पहल करे, तो उनकी जि़ंदगियां संवर सकती है। देश-देश में आपसी सौहार्द, सहयोग से ही सुनहरे कल की तस्वीर रची जा सकती है। इस नेक नज़रिए से पूरे विश्व में न सिर्फ हमारी साख मजबूत होगी साथ ही परोपकार की अपनी परंपरा पर भी हम गर्व से कायम रह पाएंगे।

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