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’’जज़्बे-जुनून की आग तो थी भरी उसमें कूटकर
उन्हीं लपटों ने उसका दामन सुपुर्द-ए-ख़ाक कर दिया’’….
पश्चिम बंगाल का एक छोटा सा गांव पुरूलिया गवाह है कि आज से छब्बीस साल पहले 10 अप्रैल 1986 में यहां की एक मां ने एक बेटी पैदा की थी। शहर की भागमभाग से दूर गांव की धूल-मिट्टी में पली-बढ़ी इस बेटी ने अपनी किस्मत अपने पैरों से लिखी। मेलबर्न में पहली बार 2006 के काॅमनवेल्थ गेम्स, 400 मी. रिले में रजत जीत, इस महिला एथलीट ने साबित कर दिया कि हुनर मुफ़लिसी का मौताज़ नहीं।
एसियाई खेलों समेत पांच स्वर्ण, एक रजत अपने नाम करने वाली इस योद्धा को आज हम पिंकी प्रमाणिक के नाम से जानते हैं। कुछ महीनों पहले उसकी महिला साथी ने उस पर पुरूष होने व बलात्कार के प्रयास का केस फाइल किया था। पश्चिम बंगाल पुलिस ने हरकत में आते हुए जांच-पड़ताल तेज की तो उसके पुरूष होने का सच सामने आया।
इस केस की गुत्थी को समझना जहां पुलिस-प्रशासन के लिए टेढ़ी खीर बना, वहीं खेल प्रशंसकों को इस घटना ने झकझोर सा दिया था। पिंकी न सिर्फ अपनी लैंगिक जांच से पहले इसे आरोप मानती रही, बल्कि पुरूष सिद्ध होने के बाद भी उसने इसे साजि़श का हिस्सा माना है।
यशराज बैनर ने जब इश्क-ए-रोमांच का घड़ा तोड़ते हुए 2007 में ’चक दे इंडिया’ रिलीज़ की थी तो उसने बाॅक्स आॅफिस पर ज़बर्दस्त धमाका किया था। शाहरूख खान भारतीय महिला हाॅकी टीम के कोच की भूमिका में क्रिकेट की चकाचैंध में हाॅकी के अंधेरे को सामने ले आये थे। ’शिमित अमीन’ निर्देशित इस फिल्म ने महिला हाॅकी की कड़वी सच्चाइयों को पर्दे हू-ब-हू पेश किया था।
पिंकी प्रामाणिक केस में सच्चाई जो भी हो पर क्या उसका जोश-जज़्बा इस फिल्म की उन ग्यारह लड़कियांे जैसा नहीं लगता ? यह बताने की ज़रूरत नहीं कि जब लड़की घर की दहलीज़ पार करती है तो उसके खिलाफ समाज की कितनी ताकतें खड़ी हो जातीं हैं। आज भी हम ’बेटे को बाहर, बेटी को अंदर रखने’ जैसी सोच से बाहर नहीं निकल पाये हैं, तो गौर करें कि छब्बीस साल पहले क्या हालात रहे होंगे ?
क्या पिंकी और उन जैसी तमाम महिला खिलाडि़यों को ’चक दे इंडिया’ जैसा माहौल देने की ज़रूरत नहीं है ? क्या एथलीट्स एसोसिएसन को इस फिल्म से सबक नहीं लेना चाहिए ? हमें यह बात गांठ बांधनी होगी कि खेल सिर्फ हार-जीत जैसे छोटे पेमाने तक सीमित नहीं हेाता, उसे ज़रूरत होती है एक कुशल गाइडेंस की, एक जोशीले माहौल की।
आज हमारे खिलाडि़यों को ब्राण्डेड जूते-ड्रेस तो उपलब्ध हैं पर खेल के पीछे छिपी सच्ची भावना को उनमें भरने वाला गाइडेंस गायब है। जब तक हम मार्गदर्शन के बेहतर विकल्प नहीं खोज लेते, पिंकी प्रमाणिक जैसे केस बार-बार हमें, हमारे समाज को बदनामी और बदहाली के गड्ढे में ढकेलते रहेंगे
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