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ये मुस्कान झूठी है ………

dhairya
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balika-badhu_post_1336712096क्या जो ’बालिका वधु’ के पिछले कुछ एपीसोड्स में प्रसारित हुआ, उसे पर्दे के पीछे का हिंदु समाज चैन-ओ-अमन से स्वीकार करेगा …?

’’जो हाथ आज तक सिर्फ आशीर्वाद और भगवान की प्रार्थना के लिए उठे हों, उनसे अपशकुन कैसे हो सकता है’’। कलर्स चैनल पर प्रसारित, हज़ार एपीसोड्स का आंकड़ा पार कर लेने वाले एक सफल धारावाहिक ’बालिका वधु’ में एक बहू और उसकी विधवा सास के बीच का मार्मिक संवाद। आनंदी अपनी शादी की मेहन्दी रस्म में अपनी दादी सा समेत गांव की सभी विधवा लड़कियों को शामिल कर उनके चेहरों पर मुस्कान लाने को बेताब दिखती है।
ऐसा इम्मोशनल टच दर्शकों का दिल जीतने के लिए तो काफी है पर क्या पर्दे के पीछे हिंदु-धर्म की बेडि़यां उन विधवा स्त्रियों को बख्शने को तैयार हैं ..?
कुछ परंपराएंे समाज को कभी-कभी ऐसी शक्ल दे देती हैं कि उनमें खुशियांे की रेखाएं, उमंगों की मुस्कान आते-आते रह जाती है। हिंदु धर्म में पति की मौत के बाद स्त्री को मेहन्दी-सिंदूर जैसे कई भौतिक प्रसाधनों से दूर होना पड़ता है। ऐसे में सवाल उठता है कि खासतौर पर महिलाओं को टार्गेट करते ये सीरियल खुली और आधुनिक सोच की ढाल लेकर कैसे इन कट्टर नियमों का सामना कर पाएंगे ..?
यूपी के बुंदेलखंड का ताज़ा उदाहरण लें जहां गैर-धर्म की लड़की से रिश्ता जोड़ने की कीमत एक युवक को अपनी जान से हाथ धोकर चुकानी पड़ी। ऐसे कई किस्से-हादसे देश के कौने-कौने में हर दिन, हर घंटे पनप रहे हैं, जिन पर फिलहाल कोई अंकुश नहीं लग पाया है।
प्रदीप यादव निर्देशित ’बालिका-वधु’ में आनंदी और उसके आदर्श गांव की कहानी को जिस राजस्थानवी शैली में सादगी और इमोशनल टच के साथ दिखाया गया, वाकई सराहनीय है। नायिका का पति उसे छोड़ किसी और का दामन थाम लेता है, और ससुराल वाले उसे अपनी बेटी मानकर उसके लिए एक अच्छे रिश्ते की तलाश करते हैं।
क्या इसे वाकई सीरियल तक सीमित ना समझा जाये, क्यूंकि प्रेक्टिकली ऐसा वही लोग कर पाते हैं जिनकी सोच या तो आधुनिक से भी आधुनिक हो या उन्हें समाज के रिवाज़ों की परवाह न हो। मेहन्दी रसम में जिस तरह गांव की विधवा लड़कियों को शामिल कर उन्हें खुशियां नवाज़ीं गईं हैं, वह वाकई आयोजकों की पीठ थपथपाने लायक है, पर क्या पर्दे के पीछे ऐसा संभव है ?
क्या विधवा स्त्री में आज इतनी ताकत है कि वह इन थकीं-हारीं परंपराओं से लड़ सके ? यदि आधुनिक सोच भर से ऐसे चमत्कारिक बदलाव होने होते तो सिलसिला चल निकला होता। ज़रूरत है एक सहमति की, एक संकल्प की। हमें दिल से मानना और मनाना होगा कि जो परंपराएं हमसे हमारी खुशियां छीन रहीं हैं, वे रूढि़यां हैं, बोझ हैं हमपर,।
संस्कार हमें खुशियां बांटना और हासिल करना सिखाते हैं, हर वो चीज़ जो हमारे दिल-मन में चुभन पैदा करती हो, उसे रूह में लगे कांटे की तरह उखाड़ फेंक देना चाहिए। बालिका वधु जैसे सीरियल वाकई बधाई एवं हज़ारों धन्यवाद के पात्र हैं जो स्त्री-जीवन एवं न्यायिक व्यवस्था को प्रेम और सादगी की डोर से बांधते चल रहे हैं।
मयंक दीक्षित
साकेतनगर, कानपुर। 8081523788

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