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वैसे तो नवंबर महीना हर साल ही आता रहा होगा, पर 2008 में इसी महीने में मुंबई खून से रंग गया था। खूंख्वार आतंकियों का समूह निरीह-निर्दोष जानों पर टूट पड़ा था। पांच-सितारा होटलों, रेलवे स्टेशन से लेकर निजी दुकानों तक में जमकर गोलीबारी की गई थी। उन आतंकियों में एक जि़ंदा बच पाया जो चार साल से भारत में ’मेहमान-आतंकी’ की भूमिका में रह रहा था- अजमल आमिर कसाब
166 लोगों की जि़ंदगियां छीनकर कसाब ने खुद के व अपने वकील की दलीलों से ख़ुद को ’बहकाया हुआ मासूम’ बताया। उसने अपना गुनाह कबूल कर वही ढकोसली सहानुभूति बटोरने वाली असफल बातें कहीं जो आमतौर पर आतंकवादी पकड़े जाने पर करते हैं। उसकी दया याचिका राजनीतिक टोकरियांे में यहां से वहां डोलती रही। नेता इसे लोक तंत्र कहते रहे, विपक्ष को बैठे-बैठाये गंभीर मुद्दा मिला, पर आज जब अजमल को फांसी के तख्त पर सज़ा-ए-मौत दी गई तो हमले में मृतकों के परिवारों के साथ-साथ पूरे देश ने सुकून की सांस ली।
हैरत इस बात की कम कि इंसाफ में चार साल लगे बल्कि इस बात की है कि उसके रहने से खाने तक का कुल खर्च 54 करोड़़ निकलता है। यही नहीं चुटकुलों-कार्टूनों में केंद्र का कसाब को बिरियानी खिलाना भी खूब चर्चा में रहा। तथ्यों के अनुसार देश में आठ साल बाद फांसी की सज़ा अमली तौर पर हुई है। इसमें कोई दोराय नहीं कि ख़ुद को महामहिम न कहने देने वाले राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने इस याचिका पर दया नहीं दिखाई। यदि प्रतिभा जी होतीं तो शायद पासा पलट सकता था, उनकी दरियादिली उनके कार्यकाल में दी गई तमाम माफि़यों से ज़ाहिर हो चुकी थी।
तमाम अटकलों-अवरोधों के बावज़ूद ट्रांसपेरेंसी इस मामले में रही। यह अलग बात है कि ग्रह मंत्रालय ने इसे ’आॅपरेशन-एक्स’ करार देकर थोड़ा गुप्त रखा। कांग्रेस के बड़े चेहरे इस फैंसले से अपनी पीठ तो थपथपा रहे हैं पर अफजल गुरू पर फांसी के सवाल का जवाब देने से कतरा भी रहे हैं।
क्या आज भी पड़ोसी मुल्क के आतंकी मंसूबों का भय भारतीय लोकतंत्र की जड़ों में गोंद की तरह चिपक रहा है ?? क्या न्याय की चैखट तक पहुंचने से पहले फाइलें अपना रास्ता भटक जातीं हैं ..? यहां एक चैनल में कही गई बात का जि़क्र मैं करना चाहूंगा – ’’जब तक हम धर्म-मज़हब के चश्मे से आतंकवाद का चेहरा देखते रहेंगे तो कसाब-गुरू जैसे मुद्दे हमेशा सर उठाते रहेंगे व न्याय मंे देरी होती रहेगी’’।
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