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सरकार-समाज का यह नारा ’सब पढ़ें-सब बढ़ें’ सुनने में अच्छा तो लगता है पर इस नारे पर हर छात्र की मेहनत-लगन फिट नहीं बैठ पाती। इस तरक्की की राह में कभी-कभी आ जाते हैं गरीबी-लाचारी के ’स्पीड ब्रेकर’। किसी लेखक ने ठीक ही कहा है कि गरीब पैदा होना बुरा नहीं पर मरना अभिशाप है, धिक्कार है। ऐसा ही धिक्कार है सरकार पर और उस छात्र की गरीबी पर जो कृषि इंजीनियरिंग काॅलेज में अपने भविष्य की इबारत लिखने आया था पर कैंसर जैसी गंभीर बीमारी को जैसे उसी के घर का पता मिला हो। पैसे की किल्लत, भविष्य की मशक्कत के बीच हुई कैंसर की दस्तक। परिवार की जमा पूंजी खत्म होनी शुरू हुई; करीबियों की करीबी का भी इम्तिहान हुआ, काॅलेज प्रशासन की भी मिन्नतें हुईं , सपा सरकार की समाजवादिता परखी गई पर अंत में हाथ आई असमर्थता और असफलता। इलाज का खर्च था 10 लाख , रकम बड़ी थी पर मदद के रूप में ना मिलकर , मुआवजे के रूप में मिली। 19 साल का लव ना केवल कैंसर से हारा बल्कि दुनियादारी और राजनीति से भी हार गया। शुक्र है कि ऐसी दिल दहला देने वाली घटनाओं के बाद भी सरकार के पास मुआवजे का सांत्वना पुरूस्कार बाकी रहता है।
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