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मजबूरी-गरीबी की पुंगी …..

dhairya
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नत्थू जब जसवंतनगर (इटावा) जैसे छोटे व पिछड़े कसबे से होटल मैनेजमेण्ट करने दिल्ली गया तो शहर की चकाचैंध देखकर हैरान रह गया । हाईटेक पढ़ाई , हाईटेक लोग और उनका रहन-सहन वाकई किसी कसबेवासी के लिए धरती से चांद पर जाने जैस था। ’मैट्रो’ देखकर सोचता था कि ’देखो अब तो ट्रंेनें भी जमीने के अंदर चलने लगीं हैं’ । हुआ कुछ यूं कि बेचारे नत्थू की मां बचपन में ही गुजर गईं थीं तो वह अपने पिता के साथ चूल्हे-चैके में हाथ बंटाया करता था और धीरे धीरे वह खाना बनाने में निपुण होता चला गया। एक दिन उसका एक शहरी मित्र उसके घर आया तो उसने उसे भी अपने हाथ से खाना बनाकर खिलाया जिसने उसे उंगलियां चाटने पर मजबूर कर दिया। बातों बातों में जब उस शहरी मित्र ने उससे उसके भविष्य के बारे में चर्चा की तो पाया कि उसने अभी कुछ भी सोचा ही नहीं है। इस पर उसने खाना बनाने वाले कोर्स की चर्चा की तो उसने खुश होते हुए हामी भर दी। चंद दिनों में पिताजी की आज्ञा पा अपने शहरी मित्र का पता लेकर शहर चला आया । चूंकि उसका मित्र रूपये पैसे में अच्छा-खासा था तो उसने एक होटल मैनेजमेण्ट संस्थान में दाखिला करा दिया । पांच साल वह दिल्ली को अपने दिल में बैठाये महनत से कोर्स में लगा रहा और छटवीं साल उसे पंद्रह लाख प्रति साल का पैकेज मिला। खुशी से फूला नहीं समा रहा था वो । अपने मित्र का शुक्र्रिया अदा करने गया तो पता चला कि वह विदेश में है। उसने उसकी तस्वीर पर हाथ जोड़कर धन्यवाद किया व चार-छह आंशू गिराके अपने गांव को रवाना हो गया । घर पहुंचते ही पिता की दाढ़ी मूछों वाला चेहरा देखकर बोला ’’अरे बापू आप तो बूढ़े हो गये चलिए हमारे साथ शहर चलिए । पता है हमें एक ’ऐसी वाले ढाबे’ का , उको का बोलत हैं वहां, हां ’मैनेजर’ बना दिया है और हमका पंद्रह लाख सालीना तनख्वाह भी मिलवे का पड़ी। पिता ने उसके मासूम चेहरे को पढ़ लिया था मन नही मन वे उस मजबूरी से कराह भी रहे थे और थोड़ा बहुत सराह भी रहे थे कि यदि आज उसकी मां होती तो आज वह इतना बड़ा ना बन पाता और मेरे साथ हल-बैल में ही लगा रहता। हाए री गरीबी और मजबूरी ……… तुझे सादर नमन ……. किसी महान लेखक ने ठीक ही कहा है कि गरीब पैदा होना बुरी बात नहीं है पर गरीब मरना सबसे बड़ा पाप है आज कल की दुनिया में ……….. ! मां का दिल .....

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