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गीता पर हाथ रख के कहो कि जो कहोगे सच कहोगे , सच के सिवाए कुछ नहीं कहोगे। इस तरह के संवाद फिल्मों-सीरियलों में हम खूब सुनते आये हैं पर असल में यह रिवाज भारत के किसी कोर्ट-कचहरी में लागू नहीं है। इस बात का रोमांचक अनुभव उन नए कैदियों को जरूर होता होगा जो पहली बार किसी जुर्म में गिरफतार होकर कोर्ट के दुर्लभ दर्शन करते हैं। कहीं ना कहीं उनके मन में ये मलाल भी होता होगा कि चलो फिल्मी दुनिया सिर्फ टीवी तक ही सीमित है और असल में अपराध करने पर कोर्ट की तस्वीर के साथ साथ प्रकि्रया में भी बदलाव हो रखा है। पुरानी फीचर फिल्मों पर नज़र डालें तो कोर्ट का नजारा ही अदभुत हुआ करता था , खचाखच भरी जनता, दो समानान्तर कटघरे , मोटा चश्मा पहने जज साहब और शोर मचने पर आर्डर-आर्डर की तमतमाती हुर्इ झल्लाहट। द्रष्य देखने वाले मन ही मन ठान लेते थे कि एसा कोर्इ पुण्य नहीं करेंगे जिससे इस भयानक सभागार के दर्शन करने पड़ जाएं। पर जैसे जैसे वक्त बदला हर तस्वीर पर रंग चढ़ते गए । ये बेचारी अदालतें वहीं की वहीं रहीं और क्राइम भी बेशरम कम नहीं हुआ। आज जज साहब से ज्यादा मुलजिम और वकीलों के संवाद पर ध्यान दिया जाता है यानी न्याय से ज्यादा जुर्म पर। जिसका सबसे आधुनिक उदाहरण है सोनी टीवी पर प्रसारित लोकप्रिय शो अदालत का। जिसे देखकर मैटिक पास दर्शक भी एलएलबी करने का शौक पाल रहे हैं । हालांकि इस कार्यक्रम की विशेष बात ये है कि इसमें कभी कोर्इ कैदी केडी पाठक से बच नहीं पाता वरना असलियत तो ये है कि अधिकतर असली मुजरिम हमेशा कानून की आंखों में धूल ,रेत और जाने क्या क्या झोंक कर चला जाता है।
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