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भारत-पाक रिश्तों की गाड़ी में सौहार्द-सहजता का र्इंधन लगाने जैसी आशाओं को लेकर पाक राष्टपति जरदारी ने सपरिवार भारत का सफल दौरा किया , हालांकि उनकी निजी यात्रा तो सफल रही पर सवाल ये है कि क्या जिन सवालों के जवाब हम मौन रहकर ही सही पर जानने को उत्सुक थे ,उन्हें ढूंढ पाये। बात चाहे मुंबर्इ हमले के खूंखार आरोपी हाफिज सर्इद की हो या सर कि्रक विवाद 96 कि.मी. का वह मुहाना जो गुजरात राज्य को पाकिस्तान के सिंध प्रांत से अलग करता है , हम अपने पड़ोसी देश से निष्पक्ष न्याय की ही उम्मीद ही लगा रहे थे, पर जिस तरह यह यात्रा स्वागत-सत्कार तक ही सिमट कर रह गर्इ उससे तो यही लगता है कि ये औपचारिक वार्तालाप किसी भी सूरत में सुलझाने वाला धागा साबित नहीं हो पाएगा। एक तरफ आसिफ ने दो देशों को एकता की डोर और संप्रदायिकता के पाठ जैसी रटी रटार्इ बातों से ढांडस बंधाया तो मनमोहन को बदले में पाक-न्यौता देकर गंभीर मसलों को टालने का भी संकेत दिया। इस तरह की बातों से व्यवहारिकता में तो सूकून मिलता है पर आंतरिक मुधे जस के तस सुलगते रह जाते हैं। हालांकि जरदारी काफिला अजमेर जि़यारत को उड़ान भरा था पर लगे हाथ चैेन-ओ-अमन पर भारत से भी भेंट प्रस्तावित थी। सियासत के चक्रव्यूह में जियारत का असर किस हद तक कारगर होगा इसका तो अल्लाह मालिक है पर इतना जरूर है कि चालीस मिनट की गंभीर वार्ता में पीएम मनमोहन ने भी समय बर्वाद ना करते हुए उन सभी मुधों को उठाया है जिसके सवाल आम आदमी भी उत्सुकता से हर पल पूंछने को तैयार खड़ा है। बेहतर है कि जरदारी-यात्रा से ऐन पहले सेना का मुधा ठंडा हो गया नहीं तो पीएम के पूरे चालीस मिनट सरकार-सेना मसले पर सफार्इ देते देते ही निकाल जाते और माननीय हाफज सर्इद जैसे निडर आरोपी आतंकियों की फाइल बिना साक्षोसबूत के अमेरिका और भारत में उम्मीद और आशंकाओं की दराज़ में पड़ी सड़ती रहती।
– मयंक दीक्षित।
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