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हम

dhairya
dhairya
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उपदेश तो देते हैं खूब हम
पर अमल स्वयं नहीं कर पाते।
इस निर्मम समाज को लुटेरों से
चाहकर भी नहीं बचा पाते।
जिस जाति की खातिर जीवित हैं
उसका रिण नहीं चुका पाते।
नवरात्र में करते हैं कन्या भोज
पर कन्या भ्रूण नहीं रोक पाते।
बेटों के लिए ढूंढते सुशील वधु
पर खुद ही बेटी नहीं चाहते।
दूसरों से उम्मीदें झोली भरने की
स्वयं खुशी बांटना नहीं चाहते।
दुनिया बदलने को आतुर हैं
पर खुद ही नहीं बदल पाते।
जब कहता है कोर्इ सत्य बात
तो मूंह फुलाकर रह जाते।
और कर दे कोर्इ तारीफ अगर
तो भावनाओं में बह जाते।
कमी कोर्इ निकाल भर दे
तो उल्टा सीधा कह जाते।
र्इश्वर ही हैं महान जो
सब कुछ हंसकर हैं सह जाते।
,और बेचारे हम जन – मानुस
यही दोहराते रह जाते।
– मयंक दीक्षित
आम आदमी।

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